शनिवार, 5 मई 2012

नित्य - निरंतर स्मरण से परम सिद्धि की प्राप्ति

|| नित्य - निरंतर स्मरण से परम सिद्धि की प्राप्ति ||
साधारण मनुष्य के लिए अंत - काल में निर्गुण - निराकार तथा सगुन - निराकार का ध्यान करना बहुत [ योगाभ्यास के अभाव में ] ही कठिन है | अतएव सुगमता से परमेश्वर की प्राप्ति का , नित्य - निरंतर स्मरण करने का , उपाय बतलाते हुए भगवान गीता [ ८ / १४ - १५ ] में कहते हैं " हे अर्जुन ! जो पुरुष मुझमें अनन्यचित्त होकर सदा ही निरंतर मुझ पुरुषोत्तम को स्मरण करता है , उस नित्य - निरंतर मुझमें युक्त हुए योगी के लिए मैं सुलभ हूँ , अर्थात उसे सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ |" जिसका चित्त अन्य किसी भी वस्तु में न लगकर निरंतर अनन्य प्रेम के साथ केवल परम प्रेमी परमेश्वर में ही लगा रहता हो , उसे ' अनन्यचित्त ' कहते हैं | सतत पद से यह दिखलाया गया है की एक क्षण का भी व्यवधान न पडकर लगातार स्मरण होता रहे और ' नित्यश: ' पदसे यह सूचित किया है की ऐसा लगातार स्मरण आजीवन सदा - सर्वदा होता ही रहे , इसमें एक दिन का भी नागा न हो | यहाँ ' मुझ पुरुषोत्तम ' पद सगुन - साकार भगवान श्रीकृष्ण का वाचक है | परन्तु जो श्रीविष्णु और श्रीराम या भगवान के दुसरे रूप को इष्ट माननेवाले हैं उनके लिए वह रूप भी ' मुझमें ' का ही वाचक है | तथा परम प्रेम और श्रद्धा के साथ निरंतर भगवान के स्वरूप का अथवा उनके नाम , गुण , प्रभाव और लीला आदि का चिंतन करते रहना ही उसका स्मरण करना है |
अनन्यभावसे भगवान का चिंतन करनेवाला प्रेमी भक्त जब भगवान के वियोग को नहीं सह सकता , तब [ गीता श्लोक ४ / ११ के अनुसार ] भगवान को भी उसका वियोग असह्य हो जाता है ; और जब भगवान स्वयम मिलने की इच्छा करते हैं , तब कठिनता के लिए कोई स्थान ही नहीं रह जाता | इसी हेतु से ऐसे भक्त के लिए भगवान को सुलभ बतलाया गया है |
आगे [ ८ / १५ ] में उनके पुनर्जन्म न होने की बात कहकर यह दिखलाते हैं की भगवतप्राप्त महापुरुषों का भगवान से फिर कभी वियोग नहीं होता | वे कहते हैं " परम सिद्धि को प्राप्त महात्माजन मुझको प्राप्त होकर दू:खों के घर एवं क्षणभंगुर पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त होते |" अतिशय श्रद्धा और प्रेम के साथ नित्य - निरंतर भजन - ध्यान का साधन करते - करते जब साधन की वह पराकाष्ठारूप स्थिति प्राप्त हो जाती है , जिसके प्राप्त होने के बाद फिर कुछ भी साधन करना शेष नहीं रह जाता और तत्काल ही उसे भगवान का प्रत्यक्ष साक्षात्कार हो जाता है -उस स्थिति को ' परम सिद्धि ' कहते हैं ; और भगवान के जो भक्त इस परम सिद्धि को प्राप्त हैं , उन ज्ञानी भक्तों के लिए ' महात्मा ' शब्द का प्रयोग किया गया है |
यह नियम है की एक बार जिसको समस्त सुखों के अनंत सागर , सबके परमाधार , परम आश्रय , परमात्मा , परमपुरुष भगवान की प्राप्ति हो जाती है , उसका फिर कभी किसी भी परिस्थिति में भगवान से वियोग नहीं होता | इसीलिए भगवतप्राप्ति हो जाने के बाद फिरसे संसार में जन्म नहीं लेना पडता , ऐसा कहा गया है |
जो चतुर्मुख ब्रह्मा सृष्टि के आदि में भगवान के नाभिकमल से उत्पन्न होकर सारी सृष्टि की रचना करते हैं , जिनको प्रजापति , हिरण्यगर्भ और सूत्रात्मा भी कहते हैं तथा जिनको ' अधिदेव ' भी कहा गया है [ ८ / ४ ] , वे जिस ऊर्ध्वलोक में निवास करते हैं , उस लोकविशेष का नाम ' ब्रह्मलोक ' है | बार - बार नष्ट होना और उत्पन्न होना जिनका स्वभाव हो एवं जिनमें निवास करनेवाले प्राणियों का मुक्त होना निश्चित न हो , उन लोकों को ' पुनरावर्ती ' कहते हैं |
|| इत्ती ||

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें