शनिवार, 5 मई 2012

संसार का असर कैसे छूटे ?

|| संसार का असर कैसे छूटे ? ||
साधकों की प्राय: यह शिकायत रहती है की यह जानते हुए भी की संसार की कोई भी वस्तु अपनी नहीं है , जब कोई वस्तु सामने आती है तो उसका असर पड जाता है | इस विषय में दो बातें ध्यान देने योग्य हैं | एक बात तो यह है की असर पड़े तो परवाह मत करो अर्थात उसकी उपेक्षा कर दो | न तो उसको अच्छा समझो , न बुरा समझो | न उसके बने रहने की इच्छा करो , न मिटने की इच्छा करो | उससे उदासीन हो जाओ | दूसरी बात यह है की असर वास्तव में मन - बुद्धि पर पडता है , आप [ आत्मा , स्वयम ] पर नहीं पडता | अत: उसको अपने में मत मानो | अर्थात संसार का असर मन में पड़े तो उसमें राग - द्वेष करके उसके साथ अपना सम्बन्ध मत जोड़ो | आप भगवान के भजन - साधन में लगे रहो | संसार का असर हो जाय तो होता रहे , अपना उससे कोई मतलब नहीं - इस तरह उसकी उपेक्षा करदो |
आपका संबंध शरीर - इन्द्रियाँ - मन - बुद्धि के साथ नहीं है , प्रत्युत परमात्मा के साथ है - इस बात को समझाने के लिए ही गीता [ १५ / ७ ] में भगवान कहते हैं " इस संसार में जीव बना हुआ आत्मा मेरा ही सनातन अंश है " | इस बात को समझ लो तो आपकी वृतियों में , आपके साधन में फर्क पड जाएगा | आप अपने को ' मैं हूँ ' - इस तरह जानते हैं | इसमें ' मैं ' तो जड है और ' हूँ ' चेतन है | ' मैं ' के कारण से ' हूँ ' है | अगर ' मैं ' [ अहम ] न रहे तो ' हूँ ' नहीं रहेगा , प्रत्युत केवल ' है ' [ चिन्मय सत्तामात्र ] रह जाएगा | इसी बात को गीता [ २ / ७२ ] में भगवान ने कहा है की जब साधक निर्मम - निरहंकार हो जाता है , तब उसकी स्थिति ब्रह्म में हो जाती है | अहंकार हमारा स्वरूप नहीं है | अहंकार अपरा प्रकृति है और हम परा प्रकृति हैं | हम अलग हैं , अहंकार अलग है | जैसे , जाग्रत और स्वप्न में अहंकार जाग्रत रहता है , पर सुषुप्ति में अहंकार जाग्रत नहीं रहता , प्रत्युत अविद्या में लींन हो जाता है | सुषुप्ति में अहंकार न रहने पर भी हम रहते हैं | जैसे भगवान अव्यक्त हैं [ श्लोक ९ / ४ ] , ऐसे ही उनका अंश होने से हम भी स्वरूप से अव्यक्त [ निराकार ] हैं | यह शरीर तो भोगायतन [ भोगने का स्थान ] है | जैसे हम रसोईघर में बैठकर भोजन करते हैं , ऐसे ही हम शरीर में रहकर कर्मफल भोगते हैं |
साधक योगभ्रष्ट होता है तो वह दूसरे जन्म में श्रीमानों के घर जन्म लेता है अथवा योगियों के घर जन्म लेता है | शरीर तो मर गया , जला दिया गया , फिर श्रीमानों अथवा योगियों के घर कौन जन्म लेगा ? वही जन्म लेगा जो शरीर से अलग है | इसलिए आप इस बात को दृढता से स्वीकार करलें की हम शरीर नहीं हैं , प्रत्युत शरीर को जानने वाले हैं | इस बातको स्वीकार किये बिना साधन बढिया नहीं होगा , सत्संग की बातें ठीक समझ में नहीं आएँगी | शरीर तो प्रतिक्षण बदलता है , पर आप महासर्ग और महाप्रलय होने पर भी नहीं बदलते , प्रत्युत ज्यों - के - त्यों एकरूप रहते हैं [ १४ / २ ] | आपके परमात्मा हैं और आप परमात्मा के हो | साधन करके आप ही परमात्मा को प्राप्त होंगे , शरीर प्राप्त नहीं होगा |
प्रत्येक मनुष्य चाहता है की मैं कभी मरूं नहीं , मैं सब कुछ जान जाऊं और मैं सदा सुखी रहूँ | ये तीनों इच्छाएँ मूल में सत , चित और आनंद की इच्छा है | परन्तु वह इस वास्तविक इच्छा को शरीर की सहायता से पूरी करना चाहता है ; क्योंकि स्वयम परमात्मा का अंश होते हुए भी वह शरीर - इन्द्रियाँ - मन - बुद्धि को अपना मान लेता है [ १५ / ७ ] | वास्तव में मनुष्य अपनी इस इच्छा को शरीर अथवा संसार की सहायता से पूरी कर ही नहीं सकता | कारण की शरीर नाशवान है , इसलिए उसके द्वारा कोई मरने से नहीं बच सकता | शरीर जड़ है , इसलिए उसके द्वारा ज्ञान नहीं हो सकता | शरीर प्रतिक्षण बदलनेवाला है , इसलिए उसके द्वारा कोई सुखी नहीं हो सकता | अत: मनुष्य में जो सत , चित - आनंद की इच्छा है , उसकी पूर्ती शरीर से असंग [ सम्बन्ध - रहित ] होने पर ही हो सकती है | इसलिए साधक को आरंभ से ही इस सत्य को स्वीकार कर लेना चाहिए की मैं शरीर नहीं हूँ , शरीर मेरा नहीं है , और शरीर मेरे लिए नहीं है |
|| इत्ती ||

2 टिप्‍पणियां:

  1. भगवानने आखिरमें भगवदगीता सुनाके कहा भाग खदे हुवे इस कलयुग से के कुछ और बात थी? सवाल इसलिए खदा हुवा हैके हरेक मनुष्य मनशुन्यका भगवान है पर गलती यह हुइ है के सब कुछ करते हुवे मनुष्य अपना मनशुन्य नहि रख पारहा है जिसमे पहलेसे भगवान विध्यमान है जो अपनी हि सांसो पे ध्यान लगाके पकड कर प्राणो तक पहोचना और आत्म ज्ञान कि सिध्धि को प्राप्त होना जो शायद इस कलयुगमें अरबोकि बसती है पर उस हस्तिसे, इस बस्तिमें ऐसा किसमें दम है जो जड शरीरसे उपर उठके इन्द्रियोकी लोलुप्ताको छोडकर इस मनके भ्रमसे बचकर बुध्धिमें इश्वरका प्रकाश याने बडीहि मुश्किल बात है पर सच यहि हैके हर जगह हरी हि हर है मानो या न मानो और वहि है जो पुरे जगत का हर्ता कर्ता धर्ता है ध्यान लगाके इस सत्यका जितना हि जल्दी समझ आ जाये याने इश्वर कृपा हो जाये.... यहां ईश्वर कृपा का मतलब है मनुष्य यत्न करपायेगा तो बाजि मारलेगा मनुष्य जन्मसे पुरा लाभ लेलेगा बाकितो जो आप समझ रहे वही सही, गुरु कृपाके सभि हकदार बने अपने जन्म का पुरा अवसर उठाये यही दुवा करते है प्राथना करते है अपने आपसे इश्वर तक की सफर तय करनेके लिये।

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  2. P for Parmatma & K 4 Khud परमात्मा खुद जिसमें बड़ी महत्वपूर्ण बात बताईं है के अपनी आँखों को और कानों को अपने बुध्दि के दाता आत्माराम मतलब वह प्राण जो शरीर छोड़ने पर मनुष्य शरीर गिर जा ता हैं ऊसे अंततक जोडे रखनाः और वेस्ट ओफ़ टाईम(marriage) आपका नहों तो इस मरुभूमि पर तो गभराना मत क्योंकि जिस अस्तित्व से यह नश्वर देह मिला है वह फिरसे एक और मौका देता है और अंतरिक्ष से और एक देहके साथ जो मेल(man) होताहै फिमेल(women) नहीं फिमेल वह जिसके पास बचपनसे समपर्ण के गुण सिखाये जा ते है और परमात्मा ने उसके शरीर की वैसीं रचना भि कि है।

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