शनिवार, 5 मई 2012

तू - ही - तू [ सब कुछ भगवान ही है

|| तू - ही - तू [ सब कुछ भगवान ही है ] ||
सब कुछ भगवान ही हैं - इसका अनुभव करने के तीन चरण हैं , जो क्रमश: इस प्रकार हैं - [ १ ] सब कुछ भगवान का ही है | [ २ ] सब कुछ भगवान ही हैं | [ ३ ] भगवान के सिवाय कभी कुछ हुआ ही नहीं | देखने - सुनने में जो कुछ आता है , वह सब मिलने और बिछुड़नेवाला है | जो मिला है , वह बिछुड जाएगा - इसमें तनिक भी संदेह नहीं है | अनंत ब्रह्मांडों में तिल - जितनी भी कोई वस्तु हमारी नहीं है | जो कुछ देखने - सुनने में आता है , वह सब अपरा प्रकृति है , जो भगवान की है | भगवान ने अपरा प्रकृति को भी ' मेरी प्रकृति ' कहा है [ गीता ७ / ४ ] और परा प्रकृति को भी ' मेरी प्रकृति ' कहा है [ गीता ७ / ५ ] | फिर हमारी क्या वस्तु बची ? सब कुछ भगवान का ही हुआ | अत: जो कुछ दीखता है , वह हमारा नहीं है , प्रत्युत भगवान का है - यह दृढ़ता से स्वीकार कर लें तो हमारा साधन शुरू हो जाएगा | ' मैं ' भी हमारा नहीं है , प्रत्युत भगवान का ही है | शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि , प्राण आदि सब भगवान के ही हैं |
मेरा कुछ नहीं है , सब कुछ भगवान का ही है - इस सत्य की स्वीकृति होते ही ' सब कुछ भगवान ही हैं ' - यह सत्य प्रकट हो जाएगा | कारण की यह जगत केवल जीव की कल्पना है | जगत न तो महात्मा की दृष्टि में है और न परमात्मा की दृष्टि में है , प्रत्युत केवल जीवात्मा की दृष्टि में है | महात्मा की दृष्टि में सब कुछ भगवान ही हैं [ गीता ७ / १९ ] | भगवान की दृष्टि में सत - असत सब कुछ वे ही हैं [ गीता ९ / १९ ] | परन्तु जीव ने अपने राग - द्वेष के कारण जगत को अपनी बुद्धि में धारण कर रखा है [ गीता ७ / ५ ] | ' वासुदेव: सर्वम ' का अनुभव होने के बाद फिर ' सर्वम ' भी नहीं रहता , प्रत्युत केवल ' वासुदेव: ' रह जाता है | इसीको श्रीमद्भागवत में ' आत्यन्तिक प्रलय ' कहा गया है और इसीको गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने ' परम विश्राम ' कहा है - ' पायो परम बिश्रामु ' [ मानस , उ , १३० / ३ ] | जैसे , जब तक गेंहूँ की खेती रहती है , तब तक पत्ती - डंठल सब दीखते हैं परन्तु अंत में [ फसल पकने पर ] केवल गेंहूँ रह जाता है | वैसे ही एक परमात्मा के सिवाय कोई चीज कभी पैदा हुई ही नहीं |
जब सबमें परमात्मबुद्धि की जाती है , तब सब कुछ परमात्मा ही हैं - ऐसा दिखने लगता है | फिर इस परमात्मदृष्टि से भी उपराम होने पर संम्पूर्ण संशय स्वत: निवृत हो जाते हैं | तात्पर्य है की भक्त सर्वत्र परिपूर्ण भगवान के शरणागत होकर अपने - आपको भी भगवान में ही लीन कर देता है | फिर शरणागत नहीं रहता , केवल शरन्य रह जाते हैं | ' मैं ' नहीं रहता , केवल भगवान रह जाते हैं | यही असली शरणागति है | इसके बाद ही फिर परमप्रेम की प्राप्ति होती है - ' मद्भक्तिं लभते पराम ' [ गीता १८ / ५४ ] | भगवान अपनी इच्छा से प्रेमलीला के लिए एक से दो हो जाते हैं - बोधसार , भक्ति ४२ में कहा गया है " तत्वबोध से पहले का द्वेत तो मोह में डालता है , पर बोध हो जाने पर भक्ति के लिए स्वीकृत द्वेत , अद्वेत से भी अधिक सुंदर होता है |" भगवान की इच्छा से होनेवाला यह प्रेम प्रतिक्षण वर्धमान होता है | इसलिए कभी भक्त और भगवान एक हो जाते हैं और कभी दो हो जाते हैं | प्रेम में यह मिलना और अलग होना [ मिलन और विरह ] भगवान की इच्छा से ही होता है , भक्त की इच्छा से नहीं | इस प्रेम की मांग मुक्त महापुरुषों में भी देखी जाती है | कारण की योग और बोध की प्राप्ति होने पर तो सूक्ष्म अहम रहता है , पर प्रेम की प्राप्ति होने पर इस सूक्ष्म अहम का भी सर्वथा अभाव हो जाता है | तभी कहा है - " प्रेम भगती जल बिनु रघुराई , अभीअंतर मल कबहूँ न जाई |" [ मानस , उ . ४९ / ३ ]
तत्त्व एक ही है और एक ही रहेगा | उस एक तत्त्व के सिवाय कभी कुछ हुआ नहीं , है नहीं , होगा नहीं , हो सकता ही नहीं | एकमात्र भगवान ही थे , भगवान ही हैं और भगवान ही रहेंगे | वे एक ही भगवान प्रेमी और प्रेमास्पद का रूप धारण करके प्रेम की लीला करते हैं | उस प्रतिक्षण वर्धमान परमप्रेम की प्राप्ति में ही मानवजीवन की पूर्णता है |
|| इत्ती ||

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें