शनिवार, 5 मई 2012

शरणागति ही परम कर्तव्य और शरणागति से ही परमगति

|| शरणागति ही परम कर्तव्य और शरणागति से ही परमगति ||
भगवान गीता [ १८ / ६२ ] में अर्जुन को उसका कर्तव्य बतलाते हुए कहते हैं " हे भारत ! तू सब प्रकार से उस परमेश्वर की ही शरण में जा | उस परमात्मा की कृपा से ही तू परम शान्ति को तथा सनातन परम धाम को प्राप्त होगा |" जिन सर्वशक्तिमान , सर्वाधार , सबके प्रेरक , सर्वान्तर्यामी , सर्वव्यापी , परमेश्वर को [ श्लोक १८ / ६१ में ] समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित बतलाया गया है , उन्हीं को यहाँ ' उस परमेश्वर ' कहा गया है और अपने मन , बुद्धि , इन्द्रियों को , प्राणों को और समस्त धन , जन आदि को उनके समर्पण करके उन्हीं पर निर्भर हो जाना सब प्रकार से उस परमेश्वर की शरण में चले जाना है |
भगवान के गुण , प्रभाव , तत्व और स्वरूप का श्रद्धापूर्वक निश्चय करके भगवान को ही परम प्राप्य , परम गति , परम आश्रय और सर्वस्व समझना तथा उनको अपना स्वामी , भर्त्ता , प्रेरक , रक्षक और परम हितैषी समझकर सब प्रकार से उन पर निर्भर और निर्भय हो जाना एवं सब कुछ भगवान का समझकर और भगवान को सर्वव्यापी जानकर समस्त कर्मों में ममता ,अभिमान , आसक्ति और कामना का त्याग करके भगवान की आज्ञानुसार अपने कर्मों द्वारा समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित परमेश्वर की सेवा करना ; जो कुछ भी दू:ख - सुख के भोग प्राप्त हों , उनको भगवान का भेजा हुआ पुरस्कार समझकर सदा ही संतुष्ट रहना ; भगवान के किसी भी विधान में कभी किंचिंन मात्र भी असंतुष्ट न होना ; मान , बडाई और प्रतिष्ठा का त्याग करके भगवान के सिवाय किसी भी सांसारिक वस्तु में ममता और आसक्ति न रखना ; अतिशय श्रद्धा और अनन्य प्रेमपूर्वक भगवान के नाम , गुण , प्रभाव , लीला , तत्व और स्वरूप का नित्य - निरंतर श्रवण , चिंतन और कथन करते रहना - ये सभी भाव तथा क्रियाएँ सब प्रकार से परमेश्वर की शरण ग्रहण करने के अंतर्गत हैं |
उपर्युक्त प्रकार से भगवान की शरण ग्रहण करनेवाले भक्त पर परम दयालु , परम सुहृद , सर्वशक्तिमान परमेश्वर की अपार दया का स्रोत बहने लगता है - जो उसके समस्त दू:खों और बन्धनों को सदा के लिए बहा ले जाता है | इस प्रकार भक्त का जो समस्त दू:खों से और समस्त बन्धनों से छूटकर सदा के लिए परमानंद से युक्त हो जाना और सच्चिदानन्दघन पूर्णब्रह्म सनातन परमेश्वर को प्राप्त हो जाना है , यही परमेश्वर की कृपा से परम शान्ति को और सनातन परम धाम को प्राप्त हो जाना है |
इस प्रकार अर्जुन को अन्तर्यामी परमेश्वर की शरण ग्रहण करने के लिए आज्ञा देकर अब भगवान उक्त उपदेश का उपसंहार करते हुए कहते हैं " इस प्रकार यह गोपनीय से भी अति गोपनीय ज्ञान मैंने तुझसे कह दिया | अब तू इस रहस्ययुक्त ज्ञान को पूर्णतया भलीभाँती विचारकर , जैसे चाहता है वैसे ही कर [ १८ / ६३ ] |" भगवान ने [ श्लोक २ / ११ ] से आरंभ करके यहाँ तक अर्जुन को अपने गुण , प्रभाव , तत्व और स्वरूप का रहस्य भलीभाँती समझाने के लिए जितनी बातें कही हैं - उस समस्त उपदेश का वाचक यहाँ ' ज्ञान ' पद है ; वह सारा - का - सारा उपदेश भगवान का प्रत्यक्ष ज्ञान करानेवाला है , इसलिए उसका नाम ज्ञान रखा गया है | इस उपदेश का महत्व समझाने के लिए और यह बात बताने के लिए की अनाधिकारी के सामने इन बातों को प्रकट नहीं करना चाहिए , यहाँ ज्ञान के साथ ' गोपनीय से भी अति गोपनीय ' विशेषण दिया गया है |
|| इत्ती ||

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