शनिवार, 5 मई 2012

भगवान के संकल्प से सृष्टि की रचना

|| भगवान के संकल्प से सृष्टि की रचना ||
सृष्टि की रचना के बारे में बताते हुए भगवान गीता [ १० / ६ - ७ ] में कहते हैं " सात महर्षिजन , चार उनसे भी पूर्वमें होनेवाले सनकादी तथा स्वायम्भुव आदि चौदह मनु - ये मुझमें भाववाले सब - के - सब मेरे संकल्प से उत्पन्न हुए हैं , जिनकी संसार में यह सम्पूर्ण प्रजा है |" ये सात ऋषि प्रत्येक मन्वन्तर में भिन्न - भिन्न होते हैं | यहाँ जिन सप्तर्षियों का वर्णन है , उनको भगवान ने ' महर्षि ' कहा है और उन्हें संकल्प से उत्पन्न बतलाया है | इनके लिए साक्षात परमेश्वर ने देवताओं सहित ब्रह्माजी से कहा है - ' मरीची , अंगिरा , अत्री , पुलस्त्य , पुलह , क्र्रतू और वसिष्ठ - ये सातों महर्षि तुम्हारे [ ब्रह्माजी के ] द्वारा ही अपने मनसे रचे हुए हैं | ये सातों वेद के ज्ञाता हैं , इनको मैंने मुख्य वेदाचार्य बनाया है | ये प्रवृतिमार्ग का संचालन करनेवाले हैं और [ मेरे ही द्वारा ] प्रजापति के कर्म में नियुक्त किये गए हैं |' इस कल्प के सर्वप्रथम स्वायम्भुव मन्वन्तर के सप्तर्षि यही हैं |
पूर्व में होनेवाले सनकादी के बारे में ब्रह्माजी ने स्वयम कहा है " मैंने विविध प्रकार के लोकों को उत्पन्न करने की इच्छा से जो सबसे पहले तप किया , उस मेरी अखंडित तपस्या से ही भगवान स्वयम सनक , सनन्दन , सनातन और सनत्कुमार - इन चार ' सन ' नामवाले रूपों में प्रकट हुए और पूर्वकल्प में प्रलयकाल के समय जो आत्मतत्व के ज्ञान का प्रचार इस संसार में नष्ट हो गया था , उसका इन्होंने भलीभाँती उपदेश किया , जिससे उन मुनियों ने अपने हृदय में आत्मतत्व का साक्षात्कार किया |' सनकादी सबको ज्ञान प्रदान करनेवाले निवृति -धर्म के प्रवर्तक आचार्य हैं | अतएव उनकी शिक्षा ग्रहण करनेवाले सभी लोग शिष्य के संबंध से उनकी प्रजा ही माने जा सकते हैं |
ब्रह्मा के एक दिन में चौदह मनु होते हैं , प्रत्येक मनु के अधिकारकाल को ' मन्वन्तर ' कहते हैं | इकहत्तर [ ७१ ] चतुर्युगी से कुछ अधिक काल का एक मन्वन्तर होता है | प्रत्येक मन्वन्तर में धर्म की व्यवस्था और लोक - रक्षण के लिए भिन्न - भिन्न सप्तर्षि होते हैं | एक मन्वन्तर के बीत जाने पर जब मनु बदल जाते हैं , तब उन्हीं के साथ सप्तर्षि , देवता , इंद्र और मनुपुत्र भी बदल जाते हैं | चौदह मनुओं का एक कल्प बीत जाने पर सब मनु भी बदल जाते हैं | ब्रह्माजी का दिन ही कल्प है [ ४३२००००००० , अर्थात ४३२ करोड मानव वर्ष ] और इतनी ही बड़ी उनकी रात्री है | वर्तमान सातवें वैवस्वत मन्वन्तर के २७ चतुर्युग बीत चुके हैं | इस समय अठाईश्वें [ २८ वें ] चतुर्युग के कलियुग का संध्याकाल चल रहा है | इस २०४५ वी. तक कलियुग के ५०८९ वर्ष बीते हैं |
इस प्रकार भगवान की विभूतियों का वर्णन कर , उनके जानने का फल बताते हुए कहते हैं " जो पुरुष मेरी इस विभूति को और योगशक्ति को तत्व से जानता है , वह निश्चल भक्तियोग से युक्त हो जाता है - इसमें कुछ भी संशय नहीं है |" भगवान की जो अनन्यभक्ति है [ ११ / ५५ ] , जिसे ' अव्यभिचारिणी भक्ति ' [ १३ / १० ] और ' अव्यभिचारी भक्तियोग ' [ १४ / २६ ] भी कहते हैं ; [ ७ / १ ] में जिसे ' योग ' के नाम से पुकारा गया है और [ ९ / १३ , १४ , ३४ ; १० / ९ ] में जिसका स्वरूप बतलाया गया है - उस ' अविचल भक्तियोग ' का वाचक यहाँ ' अविकम्पेन ' विशेषण के सहित ' योगेन ' पद है और उसमें संलग्न रहना ही उससे युक्त हो जाना है | इसके आगे [ १० / ८ , ९ ] श्लोकों में उस भक्तियोग की प्राप्ति का क्रम बतलाया गया है |
|| इत्ती ||

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