शनिवार, 5 मई 2012

निष्काम और अनन्य प्रेमी साधक - भक्त अतिशय प्रिय

|| निष्काम और अनन्य प्रेमी साधक - भक्त अतिशय प्रिय ||
भगवान ने गीता [ १२ / १३ - १९ ] में भक्तियोग द्वारा सिद्ध भक्तों [ ज्ञानी भक्तों ] के लक्षण बतलाये हैं | अब उन लक्षणों को आदर्श मानकर बड़े प्रयत्न के साथ उनका भली - भाँती सेवन करनेवाले , परम श्रधालु , शरणागत भक्तों [ साधक भक्तों ] की प्रशंसा करने के लिए उनको अपना अत्यंत प्रिय बतलाकर भगवान इस [ १२ वा अध्याय , ' भक्तियोग ' ] अध्याय का उपसंहार करते हुए कहते हैं " परन्तु जो श्रद्धायुक्त पुरुष मेरे परायण होकर इस ऊपर कहे हुए धर्ममय अमृत को निष्काम प्रेम भाव से सेवन करते हैं , वे भक्त मुझको अतिशय प्रिय हैं |" इस श्लोक में उन उत्तम साधक भक्तों की प्रशंसा की गयी है , जो सिद्ध भक्तों से भिन्न हैं और श्लोक [ १२ / १३ - १९ तक ] में बताए गए लक्षणों को आदर्श मानकर उनका सेवन करते हैं [ श्लोक १२ / २० ] |
सर्वव्यापी , सर्वशक्तिमान भगवान के अवतारों में , वचनों में एवं उनके गुण , प्रभाव , ऐश्वर्य और चरित्र आदि में जो प्रत्यक्ष के सदृश सम्मानपूर्वक विश्वास रखता हो - वह श्रद्धावान है | परम प्रेमी और परम दयालु भगवान को ही परमगति , परम आश्रय एवं अपने प्राणों के आधार , सर्वस्व मानकर उन्हीं पर निर्भर और उनके किये हुए विधान में प्रसन्न रहनेवाले को भगवतपरायण पुरुष कहते हैं |
भगवद्भक्तों के उपर्युक्त [ सात श्लोकों में बताए गए ] लक्षण ही वस्तुत: मानवधर्म का सच्चा स्वरूप है | इन्हीं के पालन में मनुष्यजन्म की सार्थकता है , क्योंकि इनके पालन से साधक सदा के लिए मृत्यु के पंजे से छूट जाता है और उसे अमृतस्वरूप भगवान की प्राप्ति हो जाती है | इसी भाव को स्पष्ट समझाने के लिए यहाँ इस लक्षण - समुदाय का नाम ' धर्ममय अमृत ' रखा गया है | भली - भाँती तत्पर होकर निष्काम प्रेमभाव से इन उपर्युक्त लक्षणों का श्रद्धापूर्वक सदा - सर्वदा सेवन करना , यही ' पर्युपासते ' का अभिप्राय है |
जिन सिद्ध भक्तों को भगवान की प्राप्ति हो चुकी है , उनमें तो उपर्युक्त लक्षण स्वाभाविक ही रहते हैं और भगवान के साथ उनका नित्य तादात्म्य - संबंध हो जाता है | इसलिए उनमें इन गुणों का होना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है | परन्तु जिन एकनिष्ठ साधक भक्तों को भगवान के प्रत्यक्ष दर्शन नहीं हुए हैं , तो भी वे भगवान पर विश्वास करके परम श्रद्धा के साथ तन , मन , धन , सर्वस्व भगवान के अर्पण करके उन्हीं के परायण हो जाते हैं तथा भगवान के दर्शनों के लिए निरंतर उन्हीं का निष्कामभाव से प्रेमपूर्वक चिंतन करते रहते हैं और सतत चेष्टा करके उपर्युक्त लक्षणों के अनुसार ही अपना जीवन बिताना चाहते हैं - बिना प्रत्यक्ष दर्शन हुए भी केवल विश्वास पर उनका इतना निर्भर हो जाना विशेष महत्त्व की बात है | इसीलिए भगवान को वे विशेष प्रिय होते हैं | ऐसे प्रेमी भक्तों को भगवान अपना नित्य संग प्रदान करके जबतक संतुष्ट नहीं कर देते तबतक वे उनके रीनि ही बने रहते हैं - ऐसी भगवान की मान्यता है | अतएव भगवान का उन्हें सिद्ध भक्तों की अपेक्षा भी ' अतिशय प्रिय ' कहना उचित ही है |
|| इत्ती ||

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