शनिवार, 5 मई 2012

सुखपूर्वक संसार- बंधन से मुक्ति

|| सुखपूर्वक संसार- बंधन से मुक्ति ||
भगवान ने गीता [ ५ / २ ] में ज्ञानयोग की अपेक्षा कर्मयोग को [ सुगम होने से ] श्रेष्ठ बतलाया है | इसी बात को सिद्ध करने के लिए अगले [ ५ / ३ - ४ ] श्लोक में कर्मयोग की प्रशंसा करते हैं और दोनों निष्ठाओं की फल में एकता का प्रतिपादन करते हैं | कर्मयोगी न किसी से द्वेष करता है और न किसी वस्तु की आकांक्षा करता है , वह द्वन्द्वों से सर्वथा अतीत हो जाता है | वास्तव में संन्यास भी इसी स्थिति का नाम है | जो राग - द्वेष से रहित है , वही सच्चा संन्यासी है | क्योंकि उसे न तो संन्यास - आश्रम ग्रहण करने की आवश्यकता है और न ज्ञानयोग की ही | अतएव यहाँ कर्मयोगी को ' नित्य - संन्यासी ' कहकर भगवान उसका महत्व प्रकट करते हैं की समस्त कर्म करते हुए भी वह सदा संन्यासी ही है और सुखपूर्वक अनायास ही कर्म - बंधन से छूट जाता है | मनुष्य के कल्याण - मार्ग में विघ्न करनेवाले अत्यंत प्रबल शत्रु राग - द्वेष ही है | इन्हीं के कारण मनुष्य कर्मबंधन में फंसता है | कर्मयोगी इनसे रहित होकर भगवदर्थ कर्म करता है , अतएव वह भगवान की दया से अनायास ही कर्मबंधन से मुक्त हो जाता है |
' ज्ञानयोग ' और ' कर्मयोग ' दोनों ही परमार्थतत्व के ज्ञान द्वारा परमपदरूप कल्याण की प्राप्ति में हेतु है | इस प्रकार दोनों का फल एक होने पर भी जो लोग फलभेद की कल्पना करते हैं वे बालक हैं | ' ज्ञानयोग ' परमार्थतत्वज्ञान का नाम नहीं है , तत्वज्ञानियों से सुने हुए उपदेश के अनुसार किये जानेवाले उसके साधन का नाम है | क्योंकि गीता [ १३ / २४ ] में ध्यानयोग , सांख्ययोग और कर्मयोग - ये तीनों आत्मदर्शन के अलग - अलग स्वतंत्र साधन बताए गए हैं | भगवान ने गीता [ १८ / ४९ - ५५ ] में ज्ञाननिष्ठां का वर्णन करते हुए ब्रह्मभूत होने के पश्चात अर्थात ब्रह्म में अभिन्न भाव से स्थितिरूप ज्ञानयोग को प्राप्त होने के बाद उसका फल तत्वज्ञानरूप पराभक्ति और उससे परमात्मा के स्वरूप को यथार्थ जानकर उसमें प्रविष्ट हो जाना बतलाया है | इससे यह स्पष्ट हो जाता है की ज्ञानयोग के साधन से यथार्थ तत्वज्ञान होता है , तब मोक्ष की प्राप्ति होती है |
दोनों निष्ठाओं का फल एक ही है और वह है - परमार्थज्ञान के द्वारा परमात्मा की प्राप्ति | दोनों में से किसी एक निष्ठां में भलीभाँती स्थित पुरुष दोनों के फल को प्राप्त कर लेता है | गीता [ १३ / २४ ] में भी भगवान ने दोनों को ही आत्मसाक्षात्कार का स्वतंत्र साधन माना है | कर्म - संन्यास का अर्थ है - ' सांख्य ' और कर्मयोग का अर्थ है - सिद्धि और असिद्धि में समत्वरूप ' योग ' [ २ / ४८ ] | भलीभाँती किये जाने पर दोनों ही साधन अपना फल देने में सर्वथा स्वतंत्र और समर्थ हैं , यहाँ ' एक में भी ' [ ५ / ४ ] इसी बात का द्योतक है |
|| इत्ती ||

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें