शनिवार, 5 मई 2012

सांख्यनिष्ठां [ ज्ञानयोग ] का स्वरूप

|| सांख्यनिष्ठां [ ज्ञानयोग ] का स्वरूप ||
सम्पूर्ण पदार्थ मृगतृष्णा के जल की भांति अथवा स्वप्न की सृष्टि के सदृश मायामय होने से माया के कार्यरूप सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरतते हैं - इस प्रकार समझकर मन , इन्द्रिय और शरीर के द्वारा होनेवाले समस्त कर्मों में कर्त्तापन के अभिमान से रहित होना [ ५ / ८ - ९ ] तथा सर्वव्यापी सच्चिदानन्दघन परमात्मा के स्वरूप में एकीभाव से नित्य स्थित रहते हुए एक सच्चिदानन्दघन वासुदेव के सिवाय अन्य किसीके भी अस्तित्व का भाव न रहना [ १३ / ३० ] - यह सांख्यनिष्ठां है | ' ज्ञानयोग ' अथवा ' कर्मसंन्यास ' भी इसी के नाम हैं | ज्ञानयोग के अवांतर भेद कई होते हुए भी उन्हें मुख्य चार विभागों में बांटा जा सकता है : - [ १ ] इस चराचर जगत में जो कुछ प्रतीत होता है , सब ब्रह्म ही है ; कोई भी वस्तु एक परमात्मा से भिन्न नहीं है | कर्म , कर्म के साधन एवं उपकरण तथा स्वयम कर्त्ता - सब कुछ ब्रह्म ही है [ ४ / २४ ] | जिस प्रकार समुद्र में पड़े हुए बर्फ के ढेलों के बाहर और भीतर सब जगह जल - ही - जल व्याप्त है तथा वे स्वयम भी जलरूप ही हैं , उसी प्रकार समस्त चराचर भूतों के बाहर - भीतर एकमात्र परमात्मा ही परिपूर्ण हैं तथा उन समस्त भूतों के रूप में भी वे ही हैं [ १३ / १५ ] |
[ २ ] जो कुछ यह दृश्यवर्ग है , उसे मायामय , क्षणिक एवं नाशवान समझकर - इन सबका अभाव करके केवल उन सबके अधिष्ठानरूप एक परमात्मा ही हैं और कुछ भी नहीं है - ऐसा समझते हुए मन - बुद्धि को भी ब्रह्म में तद्रूप कर देना एवं परमात्मा में एकीभाव से स्थित होकर उनके अपरोक्षज्ञान द्वारा उनमें एकता प्राप्त कर लेना [ ५ / १७ ] |
[ ३ ] चर , अचर सब ब्रह्म है और वह ब्रह्म ही मैं हूँ ; इसलिए सब मेरा ही स्वरूप हैं - इस प्रकार विचारकर सम्पूर्ण चराचर प्राणियों को अपना आत्मा ही समझना | ऐसा साधन करनेवाले की दृष्टि में एक ब्रह्म के सिवाय अन्य कुछ भी नहीं रहता , वह फिर अपने उस विज्ञान - आनंद - घन स्वरूप में ही आनंद का अनुभव करता है [ ५ / २४ ; ६ / २७ ; १८ / ५४ ] |
[ ४ ] जो कुछ भी यह मायामय , तीनों गुणों का कार्यरूप दृश्यवर्ग है - इसको और इसके द्वारा होनेवाली सारी क्रियाओं को अपने से पृथक नाशवान एवं अनित्य समझना तथा इन सबका अत्यंत अभाव करके केवल भावरूप आत्मा का ही अनुभव करना [ १३ / २७ , ३४ ] |
इस प्रकार की स्थिति प्राप्त करने के लिए भगवान ने गीता में अनेक युक्तियों से साधक को जगह - जगह यह बात समझाई है की आत्मा द्रष्टा , साक्षी , चेतन और नित्य है तथा यह देह आदि जड दृश्य - वर्ग - जो कुछ प्रतीत होता है - अनित्य होने से असत है ; केवल आत्मा ही सत है | इसी बात को पुष्ट करने के लिए भगवान ने [ २ / ११ से ३० ] नित्य , शुद्ध , बुद्ध , निराकार , निर्विकार , अक्रिय , गुनातीत आत्मा के स्वरूप का वर्णन किया है | अभेदरूप से साधन करनेवाले पुरुषों को आत्मा का स्वरूप ऐसा ही मानकर साधन करने से आत्मा का साक्षात्कार होता है | जो कुछ चेष्टा हो रही है , गुणों की ही गुणों में हो रही है , आत्मा का उससे कोई सम्बन्ध नहीं है [ ५ / ८ , ९ ; १४ / १९ ] | न वह कुछ करता है और न करवाता है - ऐसा समझकर वह नित्य - निरंतर अपने - आप में ही अत्यंत आनंद का अनुभव करता है [ ५ / १३ ] |
|| इत्ती ||

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