शनिवार, 5 मई 2012

अभ्यास और वैराग्य विवेचन

|| अभ्यास और वैराग्य विवेचन ||
भगवान गीता [ ६ / ३५ ] में कहते हैं " हे महाबाहो ! नि:संदेह मन चंचल और कठिनता से वश में होनेवाला है ; परन्तु हे कुंतीपुत्र अर्जुन ! यह अभ्यास और वैराग्य से वश में होता है |" मनको किसी लक्ष्य - विषय में तदाकार करने के लिए , उसे अन्य विषयों से खींच - खींचकर बार - बार उस विषय में लगाने के लिए किये जानेवाले प्रयत्न का नाम ही अभ्यास है | यह प्रसंग परमात्मा में मनलगाने का है , अतैव परमात्मा को अपना लक्ष्य बनाकर चितवृतियों के प्रवाह को बार - बार उन्हीं की ओर लगाने का प्रयत्न करना यहाँ ' अभ्यास ' है | परमात्मा ही सर्वोपरी , सर्वशक्तिमान , सर्वेश्वर और सबसे बढकर एकमात्र परमतत्व हैं तथा उन्हीं को प्राप्त करना जीवन का परम लक्ष्य है - इस बात की दृढ धारणा करके अभ्यास करना चाहिए | अभ्यास के अनेकों प्रकार शास्त्रों में बतलाये गए हैं | उनमें से कुछ ये हैं : -
[ १ ] श्रधा और भक्ति के साथ धैर्यवती बुद्धि की सहायता से मन को बार - बार सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में लगाने का अभ्यास करना [ ६ / २६ ] | [ २ ] जहां मन जाय , वहीं सर्वशक्तिमान अपने इष्टदेव परमेश्वर के स्वरूप का चिंतन करना | [ ३ ] भगवान की मानसपूजा का अभ्यास करना | [ ४ ] वाणी , श्वास , नाड़ी , कंठ और मन आदि में से किसी के भी द्वारा श्रीराम , कृष्ण , शिव , विष्णु , सूर्य , शक्ति आदि के किसी भी अपने परम इष्ट के नामको परम प्रेम और श्रधा के साथ परब्रह्म परमात्मा का ही नाम समझकर निष्कामभाव से उसका निरंतर जप करना | [ ५ ] शास्त्रों के भगवत - सम्बन्धी उपदेशों का श्रधा और भक्ति के साथ बार - बार मनन करना और उनके अनुसार प्रयत्न करना | [ ६ ] भगवतप्राप्त महात्मा पुरुषों का संग करके उनके अमृतमय वचनों को श्रधा - भक्तिपूर्वक सुनना और तदानुसार चलने की चेष्टा करना [ १३ / २५ ] | [ ७ ] मन की चंचलता का नाश होकर वह भगवान में ही लग जाय , इसके लिए हृदय के सच्चे कातरभाव से बार - बार भगवान से प्रार्थना करना | इनके अतिरिक्त और भी अनेकों प्रकार हैं | परन्तु इतना स्मरण रखना चाहिए की अभ्यास तभी सफल होगा , जब वह अत्यंत आदर - बुद्धि से , श्रधा और विश्वासपूर्वक बिना विराम के लगातार और लंम्बे समय तक किया जाएगा |
इस लोक और परलोक के सम्पूर्ण पदार्थों में से जब आसक्ति और समस्त कामनाओं का पूर्णतया नाश हो जाता है , तब उसे ' वैराग्य ' कहते हैं | प्रकृति से अत्यंत विलक्षण पुरुष के ज्ञानसे तीनों गुणों में जो तृष्णा का अभाव हो जाना है , वह परवैराग्य या सर्वोत्तम वैराग्य है | वैराग्य के कुछ साधन ये हैं : - [ १ ] संसार के पदार्थों में विचार के द्वारा रमणीयता , प्रेम और सुख का अभाव देखना | [ २ ] उन्हें जन्म - मृत्यु , जरा , व्याधि आदि दू:ख दोषों से युक्त , अनित्य और भयदायक मानना | [ ३ ] संसार के और भगवान के यथार्थ तत्त्व का निरूपण करनेवाले सत - शास्त्रों का अध्ययन करना | [ ४ ] परम वैराग्यवान पुरुषों का संग करना , संग के अभाव में उनके वैराग्यपूर्ण चित्र और चरित्रों का स्मरण - मनन करना | [ ५ ] संसार के टूटे हुए विशाल महलों , वीरान हुए नगरों और गांवों के खंडहरों को देखकर जगत को क्षणभंगुर समझना | [ ६ ] एकमात्र ब्रह्म की ही अखंड , अद्वितीय सत्ता का बोध करके अन्य सबकी भिन्न सत्ता का अभाव समझना | [ ७ ] अधिकारी पुरुषों के द्वारा भगवान के अकथनीय गुण , प्रभाव , तत्त्व , प्रेम , रहस्य तथा उनकी लीला - चरित्रों का एवं दिव्य सौंदर्य - माधुर्य का बार -बार श्रवण करना , उन्हें जानना और उन पर पूर्ण श्रधा करके मुग्ध होना |
परन्तु यह स्मरण रखना चाहिए की ये दोनों एक - दूसरे के सहायक हैं | अभ्यास से वैराग्य बढता है और वैराग्य से अभ्यास की वृद्धि होती है | अतएव एक का भी अच्छी तरह आश्रय लेने से मन वश में हो सकता है |
|| इत्ती ||

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