शनिवार, 5 मई 2012

ध्यानयोग का संक्षिप्त विवरण

|| ध्यानयोग का संक्षिप्त विवरण ||
कर्मयोग और ज्ञानयोग दोनों ही प्रकार के साधकों के लिए वैराग्यपूर्वक मन - इन्द्रियों को वश में करके ध्यानयोग का साधन करना उपयोगी है ; अत: भगवान गीता [ ५ / २७ - २८ ] में संक्षेप में फलसहित ध्यानयोग का वर्णन करते हैं | वे कहते हैं " बाहर के विषय - भोगों को न चिंतन करता हुआ बाहर ही निकालकर और नेत्रों की दृष्टि को भृकुटी के बीचमें स्थित करके तथा नासिका में विचरनेवाले प्राण और अपानवायु को सम करके , जिसकी इन्द्रियाँ , मन और बुद्धि जीती हुई हैं - ऐसा जो मोक्षपरायण मुनि इच्छा , भय और क्रोध से रहित हो गया है , वह सदा मुक्त ही है |"
विषय - चिंतन तब तक बंद नहीं होता , जब तक विषयों में सुख - बुद्धि बनी हुई है | इसलिए यहाँ भगवान कहते हैं की विवेक और वैराग्य के बल से सम्पूर्ण बाह्य विषयों को क्षणभंगुर , अनित्य , दू:खमय और दू:खों के कारण समझकर उनके संस्काररूप समस्त चित्रों को अंत:करण से निकाल देना चाहिए - उनकी स्मृति को सर्वथा नष्ट कर देना चाहिए ; तभी चित्त सुस्थिर और प्रशांत होगा | नेत्रों की दृष्टि को भृकुटी के बीच में लगाने का योगशास्त्र सम्बन्धी कारण है | कहते हैं की भृकुटी के मध्य में द्विदल आज्ञाचक्र है | इसके समीप ही सप्तकोष हैं , उनमें अंतिम कोष का नाम ' उन्मनी ' है ; वहाँ पहुंच जाने पर जीव की पुनरावृति नहीं होती | इसीलिए योगीगन आज्ञाचक्र में दृष्टि स्थिर किया करते हैं |
विषमभाव से विचरनेवाले प्राण और अपांन वायु की गति को दोनों नासिकाओं में समान भाव से कर देना ही उनको सम करना है | यही उनका सुषुम्ना में चलना है | सुषुम्ना नाड़ी पर चलते समय प्राण और अपान की गति बहुत ही सूक्ष्म और शांत रहती है | तब मन की चंचलता और अशांति अपने - आप ही नष्ट हो जाती है और वह सहज ही परमात्मा के ध्यान में लग जाता है | विवेक और वैराग्यपूर्वक अभ्यास द्वारा इन्द्रियों को सुसृन्खल , आज्ञाकारी और अंतर्मुखी या भगवननिष्ठ बना लेना ही इनको जीतना है | ऐसा कर लेने पर इन्द्रियाँ स्वछंदता से विषयों में न रमकर हमारी इच्छानुसार जहां हम कहेंगे वहीं रुकी रहेगी , मन हमारी इच्छानुसार एकाग्र हो जाएगा और बुद्धि एक इष्ट निश्चयपर अचल और अटल रह सकेगी | ऐसा माना जाता है और यह ठीक ही है की इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर लेने से प्रत्याहार [ इन्द्रियवृतियों का संयत होना ] , मन को वश में कर लेने पर धारणा [ चित्त का एक देश में स्थिर करना ] और बुद्धि को अपने अधीन बना लेने पर ध्यान [ बुद्धि को एक ही निश्चय पर अचल रखना ] सहज हो जाता है | इसलिए ध्यानयोग में इन तीनों को वश में कर लेना बहुत ही आवश्यक है |
जिसे परमात्मा की प्राप्ति , परमगति , परमपद की प्राप्ति या मुक्ति कहते हैं , उसी का नाम मोक्ष है | यह अवस्था मन - वाणी से परे है | जिसका एकमात्र उद्देश्य केवल परमात्मा को ही प्राप्त करना है , वही ' मोक्षपरायण ' है | जो पुरुष व्यवहारकाल में भी सदा परमात्मा का ही मनन करता रहता है , वही ' मुनि ' है | इच्छा होती है - किसी भी अभाव का अनुभव होने पर ; भय होता है अनिष्ट की आशंका से तथा क्रोध होता है कामना में विघ्न पड़ने पर अथवा मन के अनुकूल कार्य न होने पर | उपर्युक्त प्रकार से ध्यानयोग का साधन करते - करते जो पुरुष सिद्ध हो जाता है , उसे सर्वत्र , सर्वदा और सर्वथा परमात्मा का अनुभव होता है | इस स्थिति में उसके अंत:करण में न तो व्यवहारकाल में और न स्वप्न में , कभी किसी अवस्था में भी , किसी प्रकार की इच्छा ही उत्पन्न होती है , न किसी भी घटना से किसी प्रकार का भय ही होता है और न किसी भी अवस्था में क्रोध ही उत्पन्न होता है |
जो महापुरुष उपर्युक्त साधनों द्वारा इच्छा , भय और क्रोध से सर्वथा रहित हो गया है , वह ध्यानकाल में या व्यवहारकाल में , शरीर रहते या शरीर छूट जाने पर , सभी अवस्थाओं में सदा मुक्त ही है -संसारबंधन से सदा के लिए सर्वथा छूटकर परमात्मा को प्राप्त हो चुका है , इसमें कुछ भी संदेह नहीं है |
|| इत्ती ||

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